देश-प्रेम पर निबंध
Desh prem par nibandh
रूपरेखा-
1. देश-प्रेम की महता, 2. देश-प्रेम की स्वाभाविकता, 3. देश के प्रति हमारा कर्तव्य, 4. उपसंहार।
देश-प्रेम की महत्ता-
देश-प्रेम (Desh Prem) की भावना मनुष्य जीवन के लिए अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार मनुष्य अपने प्रेम और त्याग से अपने आपको, अपने परिवार को पोषित करता है, उसी प्रकार प्रेम और बलिदान के द्वारा वह अपने देश की रक्षा करता है। ऐसे ही बलिदानी पुरुषों के बल पर कोई भी राष्ट्र फलता-फूलता है। राणा प्रताप और महात्मा गांधी आदि ऐसे ही देशभक्त हैं। जिम मातृभूमि के अन्न, जल, वस्त्रों से हमारा पालन-पोषण हुआ, जिसकी पावन रज में खेल-कूद कर इतने बड़े हुए. जिन भी के निवामियों के मुम्ब और दुख में हमारा गहरा सम्बन्ध है, उस स्वर्गादपि गरीयमी जन्मभूमि के दर्शन-मात्र से आनन्दमय ही जाना एक स्वाभाविक सी बात है। देश-प्रेम (Desh Prem) की भावना से ओत-प्रोत कविवर मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ देखने योग्य है
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए है
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए है
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये
जिसके कारण धूलि भरे हीरे कहलाये
हम खेले कूद हर्ष युत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातभूमि! तमको निरख मग्न क्यों न हो मोद में।
वास्तव में जिम मानव के हृदय में स्वदेश का प्यार नहीं. वह हृदय नहीं पाषाण है
'भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रमधार नहीं।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है. जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।”
देश-प्रेम (Desh Prem) की स्वाभाविकता-
मातृभूमि के प्रति मनुष्य के हृदय में प्रेम (Prem) होना एक स्वाभाविक बात है। जिस प्रकार स्नेहमयी माता के प्रति स्वाभाविक अनुराग होता है उसी प्रकार आनन्ददायिनी मातृभूमि के प्रति मानव-हृदय में प्रेम की निर्मल गंगा स्वनः प्रवाहित होती है। देश-प्रेम की इस पवित्र गंगा में नहाकर मानव का शरीर ही नहीं, उसकी आत्मा भी पवित्र हो जाती है।
जिम मातृभूमि ने हमें जन्म दिया, हमारा पालन-पोषण किया, उम माता तुल्य मातृभूमि के प्रति जिसके हृदय में प्रेम की सरिता नीरस हो जाये, वह मनुष्य नहीं, उस पशु के समान है जिसमें दया, प्रेम आदि कोमल भावनाओं का विकास नहीं होता। गुप्त जी ने ठीक ही कहा है
जिसको न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है।वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।"
विश्व के सभी देशों में सदैव से देशभक्त होते आये हैं और होते रहेंगे। इस पवित्र भावना से प्रेरित हो स्वतन्त्रता संग्राम में लाखों भारतीयों ने हंसते-हसते अपने प्राणों का बलिदान चढ़ा दिया। इसी पवित्र भावना के जाग्रत होने पर विगत महायुद्ध में एक
जापानी देशभक्त ने अपने प्राणों का बलिदान चढ़ाया और शत्रु के 'प्रिंस आफ वेल्म नामक जलीय जंगी जहाज का विध्वंस कर दिया था। देश-प्रेम की भावना के कारण ही इंग्लैण्ड के निवासियों ने देश-हित के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था।
देश प्रेम के प्रति हमारा कर्तव्य-
जिस देश की भूमि ने हमें जन्म दिया, जिसके अमृत सम अन्न एवं जल ग्रहण कर हम बड़े हुए, जिसकी गोदी में खेलकर हम हृष्ट-पुष्ट हुए उस प्राणप्रिय देश के उपकारों का बदला कभी चुकाया नहीं जा सकता, अत: हमारा कर्तव्य है कि हम अपने देश के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने को तैयार रहें। अपने देश की एक-एक इंच भूमि के लिए अपने देश के सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देना प्रत्येक देशवासी का पुनीत कर्तव्य होता है।
जिस धरती की छाती का रस पीकर हम जीवन धारण करते हैं. संकट में उसकी रक्षा के लिए जो अपना सर्वस्व देकर भी उसकी आन न बचाये, उसमे कृतघ्न कोई हो नहीं सकता। कवि का यह कथन कितना उपयुक्त है
पैदा कर जिस देश जाति ने तुमको पाला-पोसा.
किये हुए है वह निज-हित का तुमसे बड़ा भरोसा।
उससे होना उऋण प्रथम है सत्य कर्तव्य तुम्हारा,
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा।"
भगवान राम को अपनी मातृभूमि के सामने बैकृष्ट का सुख भी तुच्छ दिखाई पड़ता था
यद्यपि सब बैकृष्ट, बखाना, वेद पुरान विदित जग जाना।
अवध सरिस प्रिय मोहि नहि सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥"
देश-प्रेम की यह भावना भारतीय संस्कृति का प्राण है।
उपसंहार-
वास्तव में देश-प्रेम (Desh Prem) वह पवित्र भावना है जो मानव में आत्म-गौरव और आत्म-विश्वास को जगाती है। यही वह भावना है जिसके कारण कोई देश उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है और जिसके अभाव में पतन के गर्त में गिर जाता है। जिस मनुष्य में आत्माभिमान तथा अपने देश के प्रति सम्मान की भावना नहीं है. उसे मनुष्य कहलाने का अधिकार ही नहीं है
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